अध्याय - १
उनतीस जनवरी, तीन बजकर सत्तावन मिनट पर मेरी घडी रुक गई थी। वह मुझ जैसी शोध छात्रा के लिए एक सामान्यसा दिन था। मेरे लिए सबसे बडी विवंचना यह हो सकती थी, कि परीक्षा के जांच हेतु, विश्वविद्यालय के पुस्तकालय समय पर कैसे पहुंचा जाए। यह अलग बात थी की विश्वविद्यालय का संपूर्ण विस्तार दो नदियों को लांघते विशाल परिसर में स्थित था। हालांकि हमेशा से ही एक प्रकार के आभाव और डर की भावना मुझमें कहीं थी, परंतु उस दिन इन सबसे विरहित, समय के, कहीं पीछे छूटते जाने का एहसास था। तब बीसो बार मैंने उस घडी को देखा होगा पर काफी देर बाद मुझे ज्ञात हुआ था, कि मेरे सामने दीवार पर टिक टिकाती घडी भविष्य की तरफ कूच कर चुकी थी और एक मेरी अपनी घडी, अभीभी ३ बजकर ५७ मिनट पर थमी रह गई थी ।
मैं सिटी बस की खिडकी के बाहर झांकने लगी। कपडे की मिलों को किनारे कर, बस आगे चली जा रही थी। मिलों की दीवारें, बोर्डिंगहाउस पार्क से ऊपर उठते, बडी लाल ईंटों के किल्ले की तरह दिखाई दे रही थी। वहीँ, गहरे हरे रंग का एक मंडप, बर्फ के कफन से आच्छादित, परित्यक्त खडा था। उस मंडप पर बनी जाली में, कुछ नुकीले हिमकण इस भाँति चमक रहे थे मानो किसी देवदूत के अश्रू हो। जॉश मुझे एक बार उसी जगह एक कॉन्सर्ट सुनने ले गया था। वह कॉन्सर्ट निशुल्क था और मौसम भी ऐसा, की बाहर बैठना भी मुनासिब हो। अपनी मुट्ठीको छाती पर जकड़ते हुए मैंने अपनी गर्दन दुसरी ओर कर ली, और उस तरफ की खिडकी से बाहर देखने का बहाना शुरू कर दिया। देखनेवालों पर यह प्रभावित हो, जैसे की मुझे सामनेसे गुजरते हुए मैग्नेट उच्च विद्यालय में काफी रूचि हैं। कम से कम मेरे अपरोक्ष बैठे वृद्ध वियतनामी व्यक्ति को यह गलतफहमी ना हो, कि मैं उसे घूर रही हूं।
बस मुडी, और देखते देखते तीन मंज़िला छात्रावासों की इमारतों को पार करने लगी। शहर में अब प्रायः कार्यालय और व्यापारी दुकानों का चलन था। इस पृष्ठभूमि पर, यह छात्रावास बेमौक़ा मालूम पड रहे थे। जब औद्योगिक क्रांति चली थी तब बहुत सी ग्रामीण महिलाओं ने खेतों की मजदूरी छोड, कपडे की मिलों में काम करना शुरू कर दिया था। ठीक उसी तरह आज की युवा पीढी, अपने छोटे शहरोंको छोड नदी पार स्थित राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का रास्ता चुन रही थी। नए युग के नए प्रकरण, उसी नहरके किनारे बसी, बडी ईंटों से बनी इमारतों में स्थित थे। फरक केवल इतना, की आजकल की मिलों से उत्पादित तानाबाना उच्च तकनीक, वैज्ञानिक और अभियांत्रिक नौकरियों का स्वरुप था।
मैं घडी को अपनी कलाई पर घुमाती रही, खुद को यह याद दिलाते हुए कि अंततः मेरा निर्णय सही था। मैं इस शहर में आई थी अपनी जिंदगी को एक सुनिश्चित आयाम देने, उस जाल से बचने जिसमे फंसकर मेरी माँ ने जल्द शादी कर ली थी। कम उम्र की शादी और एक के बाद एक पैदा हुए बच्चे। मैं इन सब में फंसना नहीं चाहती थी। मैं बाईस साल की एक पढ़ाकू लडकी थी - काम और पढ़ाई यहीं मेरी रूचि थी। मेरी आंखों के सामने मेरी पूरी जिंदगी का नक्शा बना हुआ था। क्यों… आख़िर क्यों? क्या कभी जीवन में सही होना इतना तकलीफदेय हो सकता है?
बसने मुझे वूलवर्थ बिल्डिंग के सामने उतार दिया। पिछले चार सालों से मैँ यू-मास लॉवेल विश्वविद्यालय जा रही थी। उससे कुछ साल पहले ही वहांसे वूलवर्थ बिल्डिंग का नामोनिशान मिट चुका था। परंतु अभीभी यह जगह उसी नामसे जानी जाती थी। सारे रास्ते थकेहारे, चिडचिडे चालकों से भरे पडे थे। उन सभी लोगों को, घरपरिवार से मिलने की जल्दी थी। बस आगे चली गई, मुझे एक बर्फसे घिरे डाउनटाउन में अकेली छोडकर। शाम होते ही यह पूरा व्यापारीक्षेत्र बंद होने लग जाता था। मेरी नजर एक बहुत बडी, हरे रंग की घडी पर गई । सूरज की ढलती किरने उसपर पड रही थी। वह घडी एक पीतल के बने खम्बे पर टिकी थी। खंबा काफी जंग चूका था। घडी की काली सुइयां समय, ३ बजकर ४५ मिनट बता रही थी। सिर्फ बारह मिनटही बचे हैं! नहीं.... मैंने खुदको समझाया, जो बीत गया सो बीत गया। मैंने वहांसे पीठ घुमाई। अपने कोट को गर्दनसे खींचते हुए, जलद रूपसे आगे की ओर चलती बनी।
सेंट्रल स्ट्रीट पर पडे रॉकसाल्ट को अपने जूतोंतले कुचलते मैं बढ़े जा रही थी। अचानक नीचले पाउतुकेत कैनाल को लांघते वक्त, फूटपाथ पर मेरे पैर फिसलते फिसलते बच गए। पुल के नीचे बर्फ की चादरें तैर रही थी। आधे पिघले बर्फ का रूपांतर काली फिसलन में हो चुका था। पुल से जुडे धेरे पकडे हुए मैंने अपने आपको संभाल लिया। शुक्र है, सर्दियां आने से पहले शहर में नया पुल बनके तैयार था। वर्ना मुझे खामखां कई अधिक मीलों का सफर तय करना पडता। इस शहर पर एकतर्फी गलियां, दो दो नदियां और एक नहरों का जाल हाविं था।...